हिलजात्रा पर्व धार्मिक आस्था, संस्कृति और मनोरंजन के प्रतीक के साथ ही कृषि प्रेम को दर्शाता है।

उत्तराखंड पिथौरागढ़

नेपाल की तर्ज पर सोरघाटी पिथौरागढ़ में हिलजात्रा पर्व बड़े हर्षोउल्लास से मनाया जाता है।

BharatdastakNews Uttarakhand Pithoragarh Report News Desk 

पिथौरागढ़ –  पहाड़ो में सभी लोकपर्व धार्मिक आस्था और संस्कृति का प्रतीक के साथ-साथ  मनोरंजन का भी बेहतरीन माध्यम है। पहाड़ों में आज भी इन पर्वों को बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। लोकपर्व के प्रति शहरी हो या ग्रामीण किसी का भी लगाव कम नहीं हुआ है। आस्था और मनोरंजन दोनों को एक साथ खुद में समेटा ऐसा ही एक पर्व है जो सोर घाटी पिथौरागढ़ का ऐतिहासिक हिलजात्रा पर्व है। जो पिछली 5 शताब्दियों से यहां बदस्तूर मनाया जाता रहा है।

उत्तराखण्ड का पहाड़ी समाज प्राचीन काल से ही कृषि पर आधारित समाज है। इसी वजह है से यहां के अधिकांश लोकपर्व भी कृषि पर ही आधारित है। सोरघाटी पिथौरागढ़ में सावन के इस महीने को कृषि पर्व के रूप में मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। सातूं आठूं से शुरू होने वाले इस पर्व का समापन पिथौरागढ़ में हिलजात्रा के रूप में होता है। 

ये पर्व पूरे देश में केवल पिथौरागढ़ के सोर, अस्कोट और सीरा परगने घाटी में ही मनाया जाता है। लेकिन इस हिलजात्रा की असल शुरूआत पिथौरागढ़ जिले के कुमौड़ गांव से हुई है। कुमौड़ गांव की हिलजात्रा का इतिहास करीब 500 साल पुराना है। माना जाता है कि इस गांव के चार महर भाई नेपाल में हर साल आयोजित होने वाली इन्द्रजात्रा में शामिल होने गये थे। महर भाईयों की बहादुरी से खुश होकर नेपाल नरेश ने यश और समृद्धि के प्रतीक के मुखौटे इनाम में महर भाईयों को दिये थे। तब से ही नेपाल की तर्ज पर ये पर्व सोरघाटी पिथौरागढ़ में भी हिलजात्रा के नाम से बड़ी धूमधाम से मनाया जाता रहा है।

इस पर्व में बैल, हिरन, चीतल, लखिया भूत जैसे दर्जनों पात्र मुखौटों के साथ मैदान में उतरे हैं। और फिर अलग अलग तरह का खेल दिखाकर दर्शकों को रोमांचित करते हैं। साए ही साथ पहाड़ के कृषि प्रेम को भी दर्शाते हैं। इस पर्व का समापन लखिया भूत के आगमन के साथ होता है। जिसे भगवान शिव का गण माना जाता है। लखिया भूत अपनी डरावनी आकृति के बावजूद मेले का सबसे बड़ा आकर्षण केंद्र होता है। जो लोगों को सुख और समृद्धि का आशिर्वाद देने के साथ ही अगले वर्ष आने का वादा कर चला जाता है। सदियों से मनाये जा रहे इस पर्व को हर साल बडे हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है।

हिलजात्रा के मुख्य पात्र लाखिया भूत को भगवान शिव के प्रमुख गण वीरभद्र का अवतार माना जाता है। वीरभद्र भगवान शिव की जटा से प्रकट हुआ था। माना जाता है कि भगवान शिव के ससुर दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। जिसमें उन्होंने अपनी पुत्री सती और जमाई भगवान शंकर को निमंत्रण नहीं दिया। लेकिन उनकी पुत्री सती शिव के मना करने के बाद भी इस यज्ञ में चली गयी। यज्ञस्थल पर दक्ष प्रजापति द्वारा शिव का घोर अपमान किया गया, जिसे सती सहन नहीं कर पायी और यज्ञ की अग्नि में कूदकर भस्म हो गयी। ये समाचार मिलते ही भगवान शंकर क्रोधित हो गए और उन्होंने अपनी एक जटा तोड़कर जमीन में पटक दी। जिससे वीरभद्र प्रकट हुए और उन्होंने यज्ञ का विध्वंश कर दक्ष प्रजापति का सर भी काट डाला। भगवान शंकर की जटा से उत्पन्न होने के कारण वीरभद्र के स्वरुप लखिया भूत को बेहद गुस्सेल स्वभाव का माना जाता है। यही कारण है कि मैदान में आते समय लखिया को लोहे की चैन से जकड़ा जाता है।  

हिलजात्रा पर्व का आगाज भले ही महर भाईयों की वीरता से हुआ हो लेकिन वक्त के साथ साथ इसे कृषि पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। धान रोपती महिलाएं और बैलों को हांकता हलिया पहाड़ के कृषि जीवन को दर्शाते है। तेजी से बदलते इस दौर में जहां लोग अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर होते जा रहे है। वही सोर घाटी के लोगों का अपनी संस्कृति के प्रति लगाव अनूठा उदाहरण पेश कर रहा है।